maharaja hanwant singh: भारत में अंग्रेजों से आजादी का दिन तय होते ही ये बात भी तय हो गई थी कि भारत और पाकिस्तान के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाली रियासतों के राजाओं को अपने राज्यों को इन देशों में विलय करना होगा। लेकिन ऐसे कई रियासत थे,
maharaja hanwant singh
जो खुद को विलय करने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तो मुगल और अंग्रेजों की शासन पर पकड़ खत्म हो चुकी थी। ऐसे में छोटी-छोटी रियासतों ने फिर से ताकत जुटाना शुरू कर दिया था। कुछ इसी तरह राजस्थान का भारत में विलय की कहानी काफी दिलचस्प है।
अगर भौगोलिक क्षेत्र के लिहाज से राजस्थान को देखें, तो आजादी के समय पूरे राजस्थान में कुल 22 रियासतें थी। इन रियासतों में से केवल अजमेर (मेरवाड़ा) ब्रिटिश शासन के कब्जे में था, बाकी 21 रियासतें स्थानीय शासकों के अधीन थी। ब्रिटिश सरकार से भारत के आजाद होते ही अजमेर रियासत भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के करारों के मुताबिक खुद-ब-खुद भारत का हिस्सा बन गई।
राजस्थान के शेष 21 रियासतों में ज्यादातर राजाओं की ये मांग थी कि वो खुद का स्वतंत्र राज्य बनाएं। राजाओं का कहना था कि उन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया है और उन्हें शासन चलाने का अच्छा तजुर्बा भी है। ऐसे में उनके राज्यों को स्वतंत्र राज्य के तौर पर भारत में शामिल किया जाए और शासन भी उनके ही अधीन बना रहने दिया जाए। इनमें से एक रियासत जोधपुर भी थी, जिसके शासक अपने रियासत को भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे। इस बात का जिक्र कॉलिंस और डोमिनिक लेपियर की किताब फ्रीडम एट मिडनाइट में विस्तार से किया गया है।
मोहम्मद अली जिन्ना भी जोधपुर (मारवाड़) को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे। वहीं जोधपुर के शासक हनवंत सिंह कांग्रेस के विरोध और अपनी सत्ता स्वतंत्र अस्तित्व की महत्वाकांक्षा में पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे।
अगस्त 1947 में हनवंत सिंह धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से मिले। हनवंत सिंह की जिन्ना से बंदरगाह की सुविधा, रेलवे का अधिकार, अनाज तथा शस्रों के आयात आदि के विषय में बातचीत हुई। जिन्ना ने उन्हे हर तरह की शर्तों को पूरा करने का आश्वासन दिया।
भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर हनवंत सिंह ने उदयपुर के महाराणा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन उदयपुर ने हनवंत सिंह के प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि एक हिंदू शासक हिंदू रियासत के साथ मुसलमानों के देश में शामिल नहीं होगा।
हनवंत सिंह को भी इस बात ने प्रभावित किया और पाकिस्तान में मिलने के सवाल पर फिर से सोचने को मजबूर कर दिया। पाकिस्तान में मिलने के मुद्दे पर जोधपुर का माहौल तनावपूर्ण हो चुका था। जोधपुर के ज्यादातर जागीरदार और जनता पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे।
माउंटबेटन ने भी हनवंत सिंह को समझाया कि धर्म के आधार पर बंटे देश में मुस्लिम रियासत न होते हुए भी पाकिस्तान में मिलने के उनके फैसले से सांप्रदायिक भावनाएं भड़क सकती हैं। वहीं सरदार पटेल किसी भी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलते हुए नहीं देखना चाहते थे।
इसके लिए सरदार पटेल ने जोधपुर के महाराज को आश्वासन दिया कि भारत में उन्हें वे सभी सुविधाएं दी जाएंगी, जिनकी मांग पाकिस्तान से की गई थी। जिसमें शस्रों का, अकालग्रस्त इलाकों में खाद्यानों की आपूर्ति, जोधपुर रेलवे लाइन का कच्छ तक विस्तार आदि शामिल था।
हालांकि, मारवाड़ के कुछ जागीरदार भारत में भी विलय के विरोधी थे। वे मारवाड़ को एक स्वतंत्र राज्य के रुप में देखना चाहते थे, लेकिन महाराजा हनवंत सिंह ने समय को पहचानते हुए भारत-संघ के विलय पत्र पर 1 अगस्त 1949 को हस्ताक्षर कर अपने रियासत को भारत में विलय कर दिया।
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